ऐसा भी होता है (कहानी)

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हरिहर नाथ त्रिवेदी

प्रोफेसर साहेब…! ओ… प्रोफेसर साहब…! बाहर निकलिए। एक व्यक्ति एक घर के बाहर खड़ा चिल्ला रहा था। तभी ऊपर से आवाज आई कौन है रे…? क्या है…? क्यों चिल्ला रहे हो। उस व्यक्ति ने कहा पहले नीचे तो आइए फिर बात करते हैं। प्रोफेसर साहब अपने ऊपर वाले तल्ले से जैसे ही नीचे उतरने को हुए तभी उनका लड़का भागता हुआ आया और कहा क्या है रे बुड्ढा नीचे काहे को जा रहा है, चल घर के अंदर। बाहर खड़ा वह व्यक्ति आश्चर्यचकित होकर यह दृश्य देख रहा था। बेचारे प्रोफेसर साहब चुपचाप अंदर चले गए। और उनके बेटे ने उस व्यक्ति से कहा चलिए यहाँ कोई बात नहीं हो पाएगी कल सड़क पर मिलिएगा। उक्त व्यक्ति वहाँ से चुपचाप चला गया।
प्रोफेसर साहब अपने जमाने के जानेमाने प्रोफेसर थे, उनकी समाज में अच्छी इज्जत थी। अभी कुछ वर्ष पहले ही वे रिटायर होकर अपने घर आए थे। पैसों की कोई कमी नहीं थी उनको, अच्छी-खासी पेंशन भी मिलती थी। गाँव पर भी जमीन जायदाद थे। प्रोफेसर साहब के दो बेटे थे सुमेश और रमेश। दोनों ही अपने-आप को काफी पढ़े-लिखे और सबसे काबिल समझते थे। उन्होंने किताबी ज्ञान तो हासिल कर ली थी परंतु, उनमें सामाजिक ज्ञान की कमी थी। वे अपने पिता को कोई इज्जत नहीं देते थे। प्रोफेसर अपने बच्चों की हरेक इच्छा पूरी किया करते थे। बच्चे जो भी कहें उन्हें वे तुरंत पूरा कर देते थे। परंतु यह उनकी बदकिस्मति कहिए या उनके कर्मों का फल, उन्हें समाज में तो काफी इज्जत मिली परंतु, अपने घर में ही वे आए दिन अपमानित होते रहते थे। बच्चे उनके साथ नौकरों की तरह व्यवहार किया करते थे।
एक दिन की बात है गाँव से उनके यहाँ एक मेहमान आया, वो मिठाई का डब्बा अपने साथ लाया था। सुबह का समय था। उक्त मेहमान ने आवाज लगाई अरे भाई साहब दरवाजा खोलिए हम आ गए हैं। तभी उनके बड़े बेटे सुमेश ने आवाज लगाई अरे बुढ्ढे जाकर दरवाजे पर देख कोई तेरा बाप आया है। प्रोफेसर साहब क्या करते शर्माते हुए दरवाजे पर गए। सामने अपने गाँव के चचेरे भाई को देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने काफी आदर के साथ उन्हें अंदर बुलाया और आंगन में कुर्सी पर बिठाया। तब तक सुमेश और रमेश भी आंगन में आ गए और पूछा… यह कौन है? इसे यहाँ बैठने को कुर्सी किसने दी बेचारे प्रोफेसर साहब कुछ कहते इससे पहले ही सुमेश ने घर आए मेहमान का हाथ पकड़कर कुर्सी से घसीटते हुए उठाया। वह कुछ समझ पाते इससे पहले ही सुमेश ने उस व्यक्ति को घर से बाहर निकाल दिया। बेचारे प्रोफेसर साहब देखते रह गए कुछ कहना चाहा उससे पहले ही उनके गाल पर एक जोरदार तमाचा आकर पड़ा। वह तमाचा उनके छोटे बेटे रमेश का था। मेहमान यह देख अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर स्टेशन के लिए रवाना हो गया। उसने इस तरह के व्यवहार की उम्मीद भी नही की थी।
क्या करते प्रोफेसर साहब बेचारे वे अपनी जिन्दगी काट रहे थे। अब उन्हें अपने बेटों के विवाह की चिन्ता सताने लगी। संपत्ति का अभाव था नहीं अपने प्रोफेसर के पद से रिटायर्ड थे सो लड़कों के विवाह का रिश्ता आना शुरू हुआ। जैसे तैसे एक बकरा फँसा जिसने अपनी बेटी का व्याह सुमेश के संग तय कर दी। सुमेश का विवाह हो गया। कुछ दिनों तक सबकुछ ठीक चला। परंतु प्रोफेसर साहब के बेटे आदत से लाचार थे, कब तक अपने-आप को संभाल पाते। उनका रवैया पुनः वैसा ही हो गया। नई-नवेली दुलहन के साथ भी उनका व्यवहार सही नहीं था। दुलहन के मायके वाले जब भी आते तो उनको उनकी बेटी से मिलने नहीं दिया जाता था और बाहर से चलता कर दिया जाता था। ऐसे माहौल में रहते हुये प्रोफेसर साहब भी अपने-आप को उसी हिसाब से ढाल चुके थे। उनके भी दिमाग के कुछ ईंटे खिसक चुकी थी। आए दिन हो हंगामा होता रहता था, प्रोफेसर साहब के घर में। दोनों बेटे घर पर ही रहते थे, कोई काम धंधा नहीं करते थे वे। परंतु, उनका रौब आॅफिसरों वाला था। वे मुहल्ले में किसी को भी अपने से ज्यादा काबिल नहीं समझते थे। मोहल्ला क्या पूरी दुनिया में कोई उनसे काबिल नहीं था। मानो सबसे काबिल वे ही थे। बैठे-बैठे कबतक चलता, एक पिता का पेंशन और दिनों-दिन महंगाई की मार। परंतु फुटानी प्रोफेसर साहब के बेटों की कम नहीं होती थी। नए-नए भौतिकतावादी सामानों को खरीदना, उसका सही से देख-भाल नहीं करना, फिर उसे औने-पौने भाव में बेच देना। ऐसा कब तक चलता। आदतन आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही थीं परंतु, आमदनी का कोई नया जरिया नहीं बन पा रहा था। वस्तुतः कर्जा-)ण लेने की शुरूआत हुई। कर्ज लेकर अपने भौतिक सुखों की पूर्ति होती रही। परंतु जब किस्त चुकाने की बारी आई तो घर के जमीन की निलामी शुरू हो गई। प्रोफेसर साहब से यह सब बर्दास्त नहीं हो पा रहा था। परंतु बेचारे करें भी तो क्या करें अपने बेटों के आगे उनकी एक नहीं चलती थी। आए दिन घर पर तगादेदारों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया। अब तो घर से निकलना भी दुभर हो गया था प्रोफेसर साहब का। जितनी इज्जत समाज में उन्हें प्रोफेसर होने के नाते मिली थी वो भी अब समाप्त हो चुकी थी। समाज के लोग उनके परिवार को पागलों की संज्ञा दे चुके थे।
ऐसे ही दिन बितता रहा। बड़े भाई का विवाह होने के पश्चात छोटे रमेश की भी इच्छा हुई विवाह रचाने की। परंतु इस शहर में तो उनके बारे में लगभग सभी को मालूम हो चुका था। तो प्रोफेसर साहब ने गाँव जाकर बाहर-बाहर ही छोटे बेटे की भी शादी तय कर दी। कुछ दिनों बाद मुहल्ले वालों ने देखा की प्रोफेसर साहब के घर में एक नया मेहमान ने कदम रखा। बहरहाल जो भी हो कुछ दिन तक तो ठीक चलता रहा। परंतु घर-घर की जो कहानी है एक म्यान में दो तलवार रखने की कहावत कहाँ तक और कितने समय तक चरितार्थ होती। आखिर एक को बाहर रहना ही था। बड़े बेटे सुमेश की पत्नी काफी चालबाज थी शायद तभी ऐसे माहौल में टिक पाई। वो सेर पर सवासेर थी। नई बहू के घर में आने के बाद खर्च की सीमा और बढ़ी। आवश्यकताएँ भी बढ़ीं। अब बेचारे प्रोफेसर साहब तो दो चाक के बीच में अटक कर रह गए थे। बड़े बेटे और छोटे बेटे की मांग पूरी करते-करते वह थक चुके थे। बड़ी बहु हमेशा इस ताक में रहती थी कि कैसे इस बुढ्ढे से पैसे ऐठें जाए। उसकी अपेक्षा छोटी बहू सीधी-साधी थी। सो उसपर आए दिन अत्याचार बढ़ने लगा। उसके साथ मार-पीट करना यहाँ तक कि बड़े भाई द्वारा आए दिन गंदी-गंदी गालियाँ देना वो बरदास्त नहीं कर पाई। बेचारी को तो फोन भी नहीं दिया जाता था। ताकि वो अपने ऊपर हो रहे जुल्म की खबर अपने मायके वालों तक पहुँचा पाती। तभी बेचारी की मदद के लिए समाज का एक व्यक्ति सामने आया और उसके ऊपर हो रहे जुल्मों को उसके मायके तक पहुँचा दिया। जब मायके से उसके पिता उसे लेने आए तो बेटी को उनसे मिलने भी नहीं दिया गया और गालियों से उसका स्वागत किया गया। तब उसने प्रशासन की मदद लेकर अपनी बेटी को इस जंजाल से निकाला।
अब प्रोफेसर साहब के छोटे बेटे की हालत और भी पागलों की तरह हो गई। उसने मुहल्ले में उत्पात शुरू कर दी। मजबूर होकर मुहल्ले वालों ने प्रोफेसर साहब के परिवारवालों को समझाया परंतु उनपर कोई असर नहीं हुआ। एक दिन ऐसा आया कि प्रोफेसर साहब बिमार पड़े और इस जंजाल से उन्हें सदा के लिए छुटकार मिल गया। प्रोफेसर साहब की लाश दरवाजे पर पड़ी थी परंतु समाज से कोई भी उनके बेटों की मदद के लिए आगे नहीं आया। बेटों को भी वैसा ही घमंड था। उन्होंने बाजार जाकर चार मजदूरों का जुगाड़ किया और उनकी मदद से प्रोफेसर साहब को श्मसान पहुँचाया। बड़े बेटे ने छोटे भाई से कहा कि जाओ कहीं से लकड़ी की व्यवस्था करके आओ ताकि इनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। छोटे भाई ने लकड़ी की दुकान पर जाकर लकड़ी का दाम पूछा तो उसे काफी महंगा लगा। उसने कहा कि अब तो पिताजी मर ही गए हैं इनपर इतना पैसा खर्च करके क्या होगा। अब तो इनका पेंशन भी नहीं मिलेगा। तभी उसने सामने से कोयले वाले को जाते देखा उसका दिमाग काम किया, उसने कोयले वाले को बुलाकर कोयले का दाम पूछा, उसे लकड़ी की अपेक्षा कोयले का दाम मिट्टी के भाव लगा। उसने तुरंत कोयले वालों से उसके सारे कोयले खरीद लिए और श्मसान पहुँच गया। सुमेश ने कहा क्या हुआ लकड़ी नहीं मिली तो रमेश ने कहा लकड़ी काफी महंगी थी इसलिए मैंे कोयला ले आया। दोनों भाइयों के सामने अब सबसे बड़ी समस्या थी कि बिना लकड़ी के कोयले में आग कैसे लगाया जाए। फिर उनलोगों ने अपने साथ आए मजदूरों से कहा कि श्मसान में जितने भी अधजले लकड़ी के टुकड़े हैं उन्हें इकट्ठा करो और उसपर कोयले को बोझकर आग लगाओ। मजदूर बेचारे क्या करते उन्हें तो काम करना था। उनलोगों ने अधजली लकड़ीयाँ इकट्ठा की और एक चिता बनाया। उनके दोनों बेटों ने मजदूरों को ईशारा किया कि प्रोफेसर साहब को इस चिता पर लिटा दो मजदूरों ने आदेश का पालन किया। फिर बड़े बेटे ने कहा अब इसमें आग लगा दो। अब तलाश हुई आग जलाने की सामग्री की। बड़े बेटे ने पास ही पड़े एक घासलेट की शीशी देखी और कहा लो इससे काम चल जाएगा। मजदूरों ने जैसे-तैसे करके आग लगाई फिर बड़े बेटे ने मजदूरों को चलता किया। कुछ देर दोनों भाई श्मसान में खड़े रहे उसके बाद वे दोनों भी प्रोफेसर साहब को जलता छोड़कर चले गए। घर आते वक्त रास्ते से उन्होंने खाने-पीने की सामग्री ले ली और घर आकर खूब दावत उड़ाई। देखिए बेचारे प्रोफेसर साहब का भाग्य बेचारे को बेटों का कंधा भी नसीब नहीं हुआ और तो और उनकी लाश भी पूरी तरह से जली की नहीं इसकी सूध लेने वाला भी कोई उपस्थित नहीं रहा। यह थी प्रोफेसर साहब की अंतिम यात्रा।
प्रोफेसर साहब के जाने के पश्चात बेटों की हालत दिनों-दिन खराब होती चली गई। अब कोई आमदनी तो थी नहीं। बचाए पैसे कितने दिन चलते हैं। कहते हैं कि बैठे-बैठे खाने से तो बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के राज समाप्त हो जाते हैं तो इनकी बिसाद ही क्या थी। आखिर में अपने गाँव की जमीन बेचकर वो शहर आए। कुछ दिन तो काफी ठाट से कटा। फिर कर्ज से कुछ दिन काम चला। बड़ा बेटा सुमेश कुछ चालाक था उसने बुरे वक्त के लिए कुछ पैसे बचा कर रखे थे। वे और उसकी पत्नी ने मिलकर छोटे भाई रमेश को घर से बाहर निकाल दिया। रमेश पागलों की तरह एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पर भटकने लगा। फिर वह अचानक कहीं गायब हो गया। कुछ दिनों बाद सुमेश ने अपने इकलौते बचे मकान को भी बेच दिया और शहर छोड़कर कहीं चला गया। मुहल्ले वालों को उनसे छुटकारा मिला और प्रोफेसर साहब को अपनी जिल्लत भरी जिन्दगी से।
यह कहानी एक बड़ा प्रश्न हमारे सामने खड़ा करता है कि क्या माता-पिता अपने पुत्रों का पालन पोषण ऐसे ही दिन देखने के लिए करते हैं?
समाप्त
कहानी के पात्र एवं घटनाएँ काल्पनिक हैं तथा किसी भी वास्तविकता से इसका कोई लेना देना नहीं है।

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