ज्ञान विध्वंसक न होकर उद्धारक हो
मनुष्य बहुत ही देव दुर्लभ शरीर है। जो अपने जीवन में जीने की
सही शैली अख्तियार करते हैं- उन्हीं का जीवन सार्थक हो सकता है।
‘‘पूज्य बाबा’’
बन्धुओं! चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हों, शिव हों, )षि-महर्षि, महात्मा हों, नर हों, नाग हों, किन्नर हों, वह शक्ति के कारण शक्तिमान हैं और हम उनकी ध्यान धारणा नहीं करते, उनको नहीं पूजते, हम उस शक्ति की पूजा करते हैं। यहाँ तक आपने पिछले अंक में पढ़ा अब आगे…
हम उस शक्ति की ध्यान धारणा करते हैं। हम रोज प्रार्थना करते हैं नमो शक्ति नमो शक्ति, कौन शक्ति? जिस शक्ति को प्राप्त कर ब्रह्मा, विष्णु, शिव इन्द्रादि सभी शक्तिमान हुए हैं। दक्ष, किन्नर, नाग, मनुष्य, )षि-महर्षि वे लोग शक्ति से मान्यता प्राप्त कर चुके हैं। हम उस शक्ति की प्रार्थना करते हैं जो हममें आकर रम जाती है, वही हममें रम जाय, हे माता और वही हमारे लिए सार्थक होगा। फिर तो जैसा जिसका संस्कार होगा चाहे अच्छे कुल में जन्म होगा, अच्छे नगर अच्छे देश में जन्म होगा, चाहे दुष्प्रज्ञ कुल में भी जन्म हो सकता है। नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेते रहते हैं। बदलाव जीवन में बराबर होता रहता है। हर पल हर क्षण रुपान्तर होता जाता है। बच्चे जवान होंगे, बूढ़े होंगे, फिर जरजर होंगे। इस लबादा को जो लादे फिर रहे हैं इसे छोड़कर नये सिरे से जीवन धारण करेंगे। तो ऐसे वातावरण में रह कर हम विचार कर सकें, जो नाना प्रकार के आक्रमण हम पर होते हैं हम उन आक्रमणों से अपने आप की रक्षा कर सकें। जिस आक्रमण के कारण न मालूम कितने काल तक भटकते रहना पड़ेगा। हे माता हमें उस सम्पदा को प्राप्त कराओ जो रोज व्यवहार में आने वाली है, जो रोज हमारी दिनचर्या में आने वाली है।
बन्धुओं, हमारी जो उपास्य हैं, हम जिनकी उपासना करते हैं और जो मेरी उपासन करती हैं, वह माता ही हो सकती है। क्योंकि दूसरा कोई हो नहीं सकता जो मेरे पीछे-पीछे फिरे, मेरे हर क्रिया कलाप पर उसकी दृष्टि जाती है, मेरे हर करतव्यों पर उनकी दृष्टि जाती रहती है। यदि सही माने में ऐसा है, वास्तविक में सच है तो आप उसे समझें। क्योंकि आप का सच समझने से गलत काम आप से कभी बन नहीं पायेगा। कभी होगा ही नहीं और करने के लिए आप बाध्य भी नहीं होंगे। आप उससे वंचित रह जायेंगे। जब आप उससे वंचित रह जायेंगे तो कितने आप सौम्य होंगे, कितने आप सरल होंगे। देश, राष्ट्र, समाज और अपने पूजनीय के प्रति आप महान गौरव को प्राप्त करने वाले व्यक्ति होंगे। हमें यही प्राप्त करना है और यह कोई दुर्लभ नहीं, बहुत ही सुलभ है। इस सुलभता को यदि हम अनदेखी करें, उपेक्षा करें तो हमसे अभागा कोई हो नहीं सकता। हमें जो आवश्यकता है, वह हमें देने के लिए खुद ही उत्सुक हैं, खुद ही दे , दिला देती हैं। तदपि भी हम बड़े कमजोर और मनोमलीनता के कारण उन्हें गौरव-आदर नहीं करते। उसकी हम उपेक्षा कर देते हैं और इसी उपेक्षा के कारण हमें उचित अनुचित, बुरा-भला बिलकुल समझ में नहीं आता है। मस्तिष्क बिलकुल विकृत होकर क्या-क्या करने के लिए व्यग्र हो जात है।
बन्धुओं आप कहें कि आप तो साधु हैं, हम लोग गृहस्थ हैं, बाल-बच्चे वाले हैं, बन्धु बान्धओं के साथ रहते हैं, उनमें कुछ न कुछ होता रहता है, कभी-कभी मन मलीन हो जाता है, कभी अनुकूल न होने से हमारा चित्त डवाँडोल भी हो जाता है। तो बन्धुओं, ये आप के सुभाव की बात नहीं। देखे होंगे तीन चार मित्रों को सायकिल से बातें करते चले जा रहे हैं। कितनी उनकी सावधानी रहती है कि अपनी साइकिल की हैंडिल पकड़ते हुए देखते हैं कि कहीं टकरा न जायँ कहीं गिर न जायँ। इसी तरह जब अभ्यन्तर से सावधान रहेंगे तो बाहरी आक्रमणों से वंचित रहेंगे। जैसे बाहर से दूसरे के देखने से यह मालूम होता है यह बातें करते जा रहे हैं, उधर से कार आ रही है, उधर से बुलडोजर आ रहा है, बहुत सी सवारियाँ आ रही हैं, कहीं टकरा न जायँ। मगर वो नहीं टकराते हैं। वही लोग टकरा जाते हैं, अभ्यन्तर से जिनकी सावधानी नहीं रहती है। अभ्यंतर से सावधानी रहती है तो बिलकुल उनके बारे में ठीक रहता है। बोलते बतियाते, अपनी दिनचर्याओं में लगे हुए, अपने हर कार्यों को करते हुए, बाह्य से देखने में नहीं आ सकते। बाहर से वे ऐसे व्यवहार करते हैं कि जब तक आप उनके अभ्यन्तर में नहीं प्रवेश पाइयेगा, तब तक नहीं समझ पायेंगे। समझने के लिए तो आप खुद ही समझते हैं, देखते हैं कि वह बातें करते जा रहा है,उधर से गाड़ियाँ आ रही हंै मगर वह इतना सावधान है कि अपने बैलेन्स को ठीक बनाये रखता है जब चाहता है तो मोड़ देता है। अपने आप में अभ्यन्तर में अन्तर्मुख होकर बाहरी देख लेता है। इसी तरह से हम अपने आप में, अपने अभ्यन्तर में सावधान रहंे तो दारा-सुत आयेंगे, कुछ का कुछ कहेंगे, कुछ का कुछ सुनेंगे, कुछ का कुछ कहना चाहेंगे। उसको देख कर अपने यहाँ जब उसे स्थान नहीं देंगे तो उसके लिए श्रोतापन नहीं होना होगा अपने आप में क्या घट रहा है, उसके लिए जब आपका श्रोतापन होगा तो बाहरी सब समझ में आ जाता है। भगवती, साक्षात वह प्रेरणाश्रोत आप सब में प्रेरणा देने लगती हैं। आप सोच लें कि कलुष प्रवृत्तियों से हट कर आप यदि अपने संस्कार को ऊँचा बनायेंगे, आप यदि अपने आप में अभ्यन्तर मुख रहते हैं तो आपको आपका परिवार दुख, वेदना नहीं पहुँचायेगा, वह तूफान नहीं उपस्थित करेगा। होगा भी तो वह अपने आप विलीन हो जायेगा, नष्ट हो जायेगा। बन्धुओं माता को भी वही पसंद है। अपने आप में अन्तर्मुख हो जाय। जो अपने आप में अपने कर्तव्य परायण रहता है जो सुभाषित होता है, दृष्टि कुदृष्टि नहीं होती है, जिसके अपने आप में प्रस्फुटित हो रहा है, जैसे क्रीं रां या क्रीं एकाक्षर मंत्र या कई एक अक्षरों के मंत्रों का उच्चारण करते हैं, उस उच्चारण को आप की नासिका से स्वांस आती-जाती रहती है। उस स्वांस में ही बड़ा धुंवां के सदृश आकार प्रकार बनता है और वह आकार प्रकार आप के मन में जैसा शिल्प, जैसा चित्र रेखा आप लिखना चाहते हैं, यह शिलापट जो पड़ा है आकाश और पृथ्वी के बीच में, खाली इस शिलापट पर बिलकुल अक्षरशः वह प्रतिबिम्बित हो जाता है। उस प्रतिबिम्ब मंे, आप सभी गौर किये होंगे स्थिर चित्त हुए होंगे, एकान्तपात किये होंगे तो एक रेखा होता है,उसके होठों का हाव भाव जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही होता है। यदि आप चाहते हैं हमें वह अभय दें, हमें वह वर दें जिससे हमारी वैखरी खुले, जिससे हमारे हृदय में आह्लाद उत्पन्न हो, जिससे हमारे मस्तिष्क , मन, हृदय सब बड़ा ही एक संतुलित रहे। यह जब आप अनुभव करने लगते हैं तो आप के मस्तिष्क, हृदय और ओद्र पर किसी का आक्रमण नहीं होता। उससे जरा सा भी विचलित होते हैं तो वह आक्रमण होने लगता है। क्योंकि तांत्रिकों का कहिए या और भी कहिए जो दूसरों के अनिष्ट के लिए कृत्य करते हैं, वे हृदय, मस्तिष्क और ओद्र को ही खराब करते हैं। वहीं कुप्रभाव डालता है। इस लिए वह ज्यादातर अपना संतुलन खो बैठता है, तो उसका चित्त बिलकुल बेचैन रहता है, स्थिर नहीं हो पाता, असंतुलित हो जाता है। वहाँ पर धीरे-धीरे सावधान होना चाहिये और वह सावधान हो माता की शरण गहे। क्योंकि हम लोग न भी इनके भक्त हों न भी इनके उपासक हों, हमारी वो माँ न हों तदपि भी कोई ठोकर लगता है, कोई पीड़ा होती है तो हाय माँ, हाय माँ कहते हैं। उस दुख और पीड़ा के वक्त माँ की याद आती है। दुखित हो अपने जीवन से कराह रहे हैं कि बन्धु-बान्धव, कुल परिवार हमारा कहाँ तक साथ देंगे, बिलकुल ये हमारा साथ देने वाले नहीं हैं। बिलकुल हमारे बनने पर ही ये बनेंगे। राम जब इष्ट तो इष्ट सब कोई। राम कुइष्ट तो कुइष्ट सब कोई। राम जब देता तो देता सब कोई। राम न देता तो देता न कोई। हमारी माता का अनुग्रह हो जाता है, उनकी दया हो जाती है तो हमारी जितनी बुराइयाँ हैं, वह भलाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं। हम जितना जीवन में बुराइयाँ करते रहे, वह सब भलाइयों में परिवर्तित हो जाती है। यदि उनकी कृपा नहीं, उनका अनुग्रह नहीं, उनका वात्सल्य नहीं और हम उनके पुत्र नहीं हैं तब हम कितनी अच्छी से अच्छी भलाइयाँ करते रहें, इस संसार में अच्छे से अच्छे कार्य करते रहें तो भी यहाँ के लोग ऐसे हंै कि वह सबकी बुराइयों में ही गिनते जायेंगे। तो बन्धुओं, मनुष्य के बनाने, बिगाड़ने से, बहुत प्रशंसा करने से, उनके आदर करने से हमारा कुछ नहीं बनने बिगड़ने वाला है। चाहे वो बहुत तिरष्कार करते हों, बहिष्कार करते हों, तुम्हें अपशब्द बोलते हों बहुत कुछ तुम्हारे लिए उनकी वाणियों में निरर्थक शब्द हों तो उससे भी तुम्हारा कुछ होने वाला नहीं। मगर एक बात है जब तुम्हारी प्रशंसा होती है, आदर होता है, जब तुम्हारा सम्मान होता है और उस पर तुम फूले न समाते हो तो समझ जाओ, वह जहर का प्याला है। और जब तुम समझ रहे हो कि मेरा अपमान हो रहा है मुझे प्रताड़ित किया जा रहा है, निरादर किया जा रहा है, मेरे को लोग अपशब्द कहते हैं और हम अच्छे कार्यों में लगे हैं भगवती के चरणों में लगे हुए हैं। उस समय समझ जाना बन्धुओं हम उस आचरण को नहीं करते हैं और न मेरे से होने ही वाला है। उसकी प्रतिक्रिया हमारे पर नहीं होगी, किसी के अपशब्द से जरा भी टिर्रायेंगे नहीं कई बार सुने हैं-
कोई जोग जनित हरि गिरिजा।
साबर मंत्र जाहि जिन सिरजा।।
साबर मंत्र कोई दूसरा नहीं है। वह तो बहुत स्थिर मन वाले स्थिर बु(ि वाले और स्थिर रहने वाले व्यक्तियों को एक बार उछाल-कूद गेंद की तरह कर देता है। वही अपशब्द जो नहीं प्रयोग करना चाहिये। छोटी कास्ट वाले लोग अपने बच्चे, औरतों पर बहुत प्रयोग करते हैं। वह स्वयं सि( है। वह किसी गम्भीर से गम्भीर व्यक्ति पर प्रयोग करो। यदि वह अभ्यन्तर से सतर्क नहीं है तो गेंद की तरह फेंकेगा, ऊपर, नीचे।
तो इन बन्धु-बान्धवों को लेकर गाँव-नगर तक के लोगों का अपने सम्मान आदर के लिए कुछ भी परवाह न करें। ये जो अवसर निकाल कर आप को अपमानित करते हैं, प्रताड़ित करते हैं, वह आपके लिए अमृत सदृश है।