विवाह (कहानी)

0

हरिहर नाथ त्रिवेदी

सुखिया बहुत ही चंचल स्वभाव की लड़की थी। सुखिया गाँव की प्यारी और अपने माँ बाप की दुलारी थी। सुखिया की उम्र 12 साल थी तब उसके छोटे भाई का जन्म हुआ। अब माँ छोटे होने के कारण उसके भाई का ध्यान ज्यादा रखने लगी। सभी उसे सुखिया से ज्यादा प्यार करने लगे। सुखिया अपने भाई को सबसे ज्यादा प्यार करती थी, परन्तु जब उसकी माँ उसके भाई को प्यार करती तो वह चीढ़ जाती थी। समय बीतता गया। सुखिया अब 15 वर्ष की हो गई और वह आठवीं कक्षा में पढ़ने जाती थी। उसका भाई अब तीन वर्ष का हो गया था। एक दिन जब सुखिया स्कूल जाने को तैयार हुई तो उसका भाई जीद करने लगा कि मैं भी दीदी के साथ स्कूल जाऊँगा। तब सुखिया ने अपने भाई को अपने साथ स्कूल ले गई। जब कक्षा में वह पढ़ने के लिए गई तो उसका भाई भी उसके साथ था। जब क्लास में मास्टर साहब आए तो सुखिया के साथ उसके भाई को देखकर काफी गुस्सा हुए उन्होंने तुरंत सुखिया को कहा कि अभी जाओ उसे घर छोड़कर आओ। तब सुखिया अपने भाई को लेकर अपने घर चल पढ़ी। रास्ते में भाई ने कहा दीदी मास्टर साहब आप पर मेरे कारण गुस्सा हुए अब मैं कभी स्कूल नहीं जाऊँगा। तब सुखिया ने समझाया कि वह बढ़ी कक्षा में पढ़ती है और तुम बहुत छोटे हो इसलीए मास्टरसाहब ने उसे घर छोड़ने को कहा। सुखीया अपने भाई को छोड़कर स्कूल वापस लौट रही थी तभी किसी के चीखने की आवाज आई। उसने सड़क के किनारे देखा एक आदमी मोटर साईकिल से गीरा हुआ है और उसका पाँव मोटरसाईकिल में दबा हुआ है। वह दौड़कर उसके पास गई और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसके पाँव से मोटरसाईकिल को हटाया और अपने वाटरबोतल से उसे पानी पीलाया। वह व्यक्ति शहर से आ रहा था और उसी गाँव के विद्यालय में जा रहा था जहाँ सुखिया पढ़ती थी। उस व्यक्ति ने सुखिया से नाम पूछा तो सुखिया ने अपना नाम बताया और तब सुखिया को उसने अपना नाम मनोहर बताया। मनोहर ने बताया कि उसकी उसके विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिली है वह वहीं जा रहा था तभी एक कुत्ते को बचाने के चक्कर में उसका एक्सीडेंट हो गया। फिर सुखिया ने बताया कि वह उसी विद्यालय की आठवीं कक्षा की विद्यार्थी है। मनोहर काफी खुबसूरत 6 फीट का बाँका जवान था। हीरो की तरह दिखता था। सुखिया मनोहर को जब गौर से देखी तो उसे वह मन-ही-मन पसंद करने लगी। वह कहीं खोई हुई थी तभी मनोहर ने कहा सुखिया तुम मेरे साथ ही स्कूल चलो तब सुखिया की तंद्रा टूटी और वह हड़बड़ाते हुए कही की स्कूल पास में ही है वह चली जाऊँगी और वह कहकर आगे बढ़ गई। मनोहर भी गाड़ी उठाकर स्कूल की तरफ चल पड़ा। जब सुखिया स्कूल पहुँची तो मनोहर की गाड़ी लगी हुई थी। वह अपने क्लास में चली गई। टिफिन हुआ तो सभी लड़कियाँ अपना-अपना टिफिन लेकर मैदान में चली गई। सुखिया भी अपना टिफिन लेकर बाहर आई आज वह खोई-खोई सी नजर आ रही थी। जब उसने अपना टिफिन निकाल कर खाना शुरू ही किया था कि सामने उसे मनोहर नजर आ गए तो सुखिया दौड़कर उनके पास पहुँच गई और उसने मनोहर से पूछा! सर आप टिफिन नहीं करेंगे। तो मनोहर ने कहा कि आज पहला दिन था इसलिए टिफिन नहीं लाए हैं तो सुखिया ने जिद किया कि उसके टिफिन में से खाए तो मनोहर मना नहीं कर पाया और दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया तबतक स्कूल की घंटी बज गई। दोनांे अपने-अपने क्लास में चले गए।
स्कूल खतम करने के बाद सुखिया अपने घर जाने लगी तो मनोहर भी शहर की ओर जा रहा था। उसने गाड़ी रोककर कहा चलो मैं तुम्हारे घर तक तुम्हें छोड़ देता हूँ- तुम्हारा घर शहर के रास्ते में ही तो पड़ेगा तब चुप-चाप सुखिया मनोहर के मोटरसाइकिल पर बैठकर अपने घर की ओर चली। जब घर करीब आया तो उसने मनोहर को कहा कि वह भी घर चले तो मनोहर भी इनकार नहीं कर पाया। जब वह दोनों घर पर पहुँचे तो सुखिया के पिताजी सामने चारपाई पर बैठे हुए थे। उन दोनों को देखते हुए खड़े हो गए। तब सुखिया ने बताया कि मनोहर उसके स्कूल के साईंस टीचर हैं और आज से ही ये विद्यालय आना शुरू किये हैं। सुखिया के पिताजी ने सुखिया से चाय-पानी लाने को कहा। मनोहर ने कहा कि आज नहीं फिर कभी आज, हमें जल्दी घर जाना है और वह खड़े हो गए जाते-जाते उन्होंने सुखिया के पिताजी से कहा आज आपकी बेटी न होती तो मेरा तो पैर ही टूट गया होता। तब सारी कहानी उन्होंने सुखिया के पिताजी से बताई और धन्यवाद कहकर चल दिए। सुखीया का मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था। वह तो दुसरी दुनिया में भ्रमण करने लगी थी।
दूसरे दीन जब सुखिया स्कूल जाने को तैयार हुई तो उसकी माँ ने कहा कि वह अपने मास्टर साहब के लिए भी खाना लेती जाए। पता नहीं वह आज भी खाना लाए होंगे कि नहीं। सुखिया के मन की बात माँ ने कह दी। अब वह दो टिफिन में खाना ले जाने लगी। इम्तिहान सिर पर था और सुखिया का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। सुखिया ज्यादा से ज्यादा समय मनोहर के साथ बीताना चाहती थी। उसने मनोहर से कहा सर मेरा साईंस कमजोर है अगर आप ट्युशन दे देते तो अच्छा होता। मनोहर ने हाँ कह दिया और कहा कि तुम्हारा ट्यूशन आज से ही शुरू कर देते हैं। जब स्कूल की छुट्टी हुई तो मनोहर के साथ सुखीया अपने घर पहुँची और अपने पिताजी से ट्युशन पढ़ने की इजाजत ले ली। अब मनोहर स्कूल के बाद सुखिया को ट्युशन पढ़ाता उसके बाद अपने घर जाता।
इम्तिहान में सुखिया ने साईंस में अच्छे नंबर लाए और पहली श्रेणी से उतीर्ण हुई। वह उस दिन बहुत खुश थी। जब वह रिजल्ट लेकर घर पहुँची तो रिजल्ट जानकर उसके पिताजी ने उसका माथा चूम लिया और मास्टर साहब को भी बधाई दी। सुखीया की माँ ने अंदर से मिठाई लाकर मास्टर साहब का मुँह मीठा करवाया। मास्टर साहब शहर अपने घर चले गए। सुखिया के पिताजी ने कहा बेटी तुम्हें क्या चाहिए मुझे बताओ आज मैं तुम जो माँगोगी मैं तुम्हें दूँगा। सुखिया ने सोचा यह मौका बहुत अच्छा है उसने अपने पिताजी से शरमाते हुए कहा मैं मनोहर सर से विवाह करना चाहती हूँ। यह सूनकर सुखिया के पिताजी के पैर तले जमीन खिसक गई, उन्हें चिन्ता होने लगी। उस वक्त तो कुछ भी नहीं कहा परन्तु उसने सुखिया की माँ से उसे स्कूल भेजने से मना कर दिया। सुखिया काफी दुःखी रहने लगी। वह बीमार पड़ गई। अपने भाई के साथ भी अब वह नहीं खेलती। गुमसुम अकेले कमरे में पड़ी रहती। यह हालत उसकी माँ से देखी नहीं गई उसने सुखिया के पिता से कहा अब और नहीं देखा जाता आप सुखिया को जब से स्कूल जाने से मना कर दिए हैं तब से उसका चेहरा मुरझा गया है। हमारी बेटी की हँसी न जाने कहाँ खो गई है। आप कुछ करते क्यों नहीं? तब सुखिया के पिता कुछ सोचते हुए स्कूल के तरफ चल पढ़े और स्कूल में जाकर उसने मनोहर सर से मिलने का फैसला किया और अपनी बेटी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखने के लिए उन्हें घर पर निमंत्रण देकर चले आए, शाम को जब मनोहर घर पर आया तो उसके तो सुखिया का चेहरा खिल उठा। वह भागकर मनोहर के पास आई।
सुखिया के पिता ने उसे चाय नास्ते के लिए भेज दिया और मनोहर के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। मनोहर सुखिया को पसंद करता था परंतु इस मुकाम तक बात पहुँच जाएगी वह नहीं सोचा था। उसने कहा- देखिये मैं एक शिक्षक हूँ और मेरा संबंध सुखिया के साथ एक शिक्षक और विद्यार्थी का ही रहा है इस विषय में तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। इसके अलावे मैं अनाथ हूँ, मेरी परवरिशकर्ता शहर के एक अच्छे शिक्षक हैं। मेरी क्या जात है मैं भी नहीं जानता मुझे पालनेवाले ने बताया है कि मैं सड़क किनारे झाड़ियों में उन्हें मिला था। अब आप ही बताइए कि कोई पिता अपनी बेटी को ऐसे व्यक्ति से विवाह करने की बात सोच सकता है। तब सुखिया के पिताजी ने कहा कि उन्हें उसकी बेटी की खुशी में ही उनकी खुशी है। अगर सुखिया उन्हें पसंद है तो आगे की बात किया जाए। तब मनोहर ने कहा कि अब मैं क्या कहूँ आप बड़े हैं अगर आप सुखिया के योग्य मुझे समझते हैं तो मुझे इस विवाह से कोई आपत्ती नहीं है, परंतु इसके लिए आपको मेरे पिता समान शिक्षक दीनानाथ प्रसाद से बात करनी होगी मेरे लिए तो वही सबकुछ हैं। तबतक सुखिया चाय नास्ता लेकर चली आई चाय नास्ते के बाद मनोहर बाबू जाने लगे तो सुखिया के पिताजी भी साथ में आए उन्हें छोड़ने के लिए। तब उन्होंने कहा कि ठीक है अगले रविवार को मैं आपके शहर आउँगा। जब मनोहर चले गए तो सुखिया के पिताजी ने सुखिया से इस विषय में कोई चर्चा नहीं की। मनोहर के आने से आज सुखिया के चेहरे पर कई दिनों के बाद खुशी की चमक नजर आई थी। देखते-देखते ही अगला रविवार भी आ गया । सुखिया के पिताजी ने किसी काम के लिए शहर जाने को कहकर शहर की ओर रवाना हो गए। मनोहर के घर के पते पर पहुँचकर वे मास्टर दीनानाथ से मिले जिन्होंने मनोहर का लालन पालन किया था। बात आगे बढ़ी विवाह की चर्चा हुई। तब मास्टर दीनानाथ ने कहा कि मेरे घर में कोई औरत तो हैं नहीं क्योंकि मैंने विवाह नहीं किया था। अगर मनोहर को लड़की पसंद है तो मुझे कोई एतराज नहीं है और उन्होंने मनोहर को अपने पास बुलाकर उसकी इच्छा जानी। सुखिया तो सुंदर थी ही मनोहर को अच्छी भी लगती थी सो उसने भी विवाह के लिए हामी भर दी। अगले महीने के तीन तारीख को मनोहर और सुखिया का विवाह तय हो गया। तब सुखिया के पिता ने इजाजत लेकर अपने गाँव के तरफ चल पढ़े। जब वह बस से जा रहे थे तो रास्ते में यही सोच रहे थे कि बिटिया अब बड़ी हो गई है। अब उसके विवाह का दिन भी करीब आ गया । बहुत सारी तैयारियाँ करनी है। तभी जिस बस से वह वापस अपने गाँव लौट रहे थे उस बस का एक्सिडेंट हो गया और बस में सवार 45 लोगों की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई। बस जहाँ दुर्घटनाग्रस्त हुई थी वह गाँव से लगभग आधे किलोमिटर की ही दूरी पर था। इस दुर्घटना की खबर गाँव में आग की तरह फैल गई। गाँव वाले उस स्थान पर दौड़ पड़े जहाँ दुर्घटना हुई थी। सुखिया, उसकी माँ भी उस ओर भागे क्योंकि शाम को वही एक बस गाँव की तरफ आती थी और उन्हें पता था कि उसके पिताजी उसी बस से वापस लौटने वाले हैं। सभी रोते बिलखते वहाँ पहुँचे वहाँ का दृश्य बड़ा ही दर्दनाक था। सभी अपने-अपने परिजनों की लाशों के सामने बैठे रो रहे थे। सुखिया और उसकी माँ जब घटनास्थल पर पहुँचें तब उनके शरीर में काटो तो खून नहीं क्योंकि उन्होंने अपने पति की लाश वहीं जमीन पर पड़ा हुआ पाया। अपने पिता की लाश से लिपटकर सुखिया रोती रही गाँव वालों ने सुखिया के पिता के लाश को उठाकर उसके घर ले आए साथ में सुिखया और उसकी माँ और उसका भाई भी रोते-बिलखते पीछे-पीछे आए। तब तक रात हो चुकी थी। रातभर उनलोगों ने अपने पिता के पास बैठकर रोते हुए बिताया। सुबह हुई तो लाश जलाने के लिए गाँव वाले आ गए। सुखिया लिपटकर रो रही थी उसकी माँ बेहोश पड़ी थी। सुखिया का भाई रोते-रोते वहीं सो गया था। गाँव वालों ने मिलकर उसके पिता के क्रियाकर्म की तैयारी पूरी की तब तक मनोहर भी गाँव आ चुका था और उसे सारी घटना की जानकारी मिली। मनोहर भी स्कूल न जाकर सुखिया के पिता के अंतिम यात्रा में भाग लिया और उनके परिवारवालों को ढाढ़स बंधाया। आज रात मनोहर वहीं रूक गया। सुबह उसने सारी बात सुखिया के माँ को बताई कि सुखिया के पिताजी उनके विवाह के लिए दिन तय करने गए थे और अगले महीने के तीन तारीख को दीन भी तय हो गया था। यही खुशखबरी वह अपने बिटिया को देने के लिए उतावले थे हमलोगों ने काफी रोका भी था कि आज मत जाइए परंतु विवाह तय होने की खुशी शायद उन्हें बरदास्त नहीं हुई वह इस बात को आपलोगों को बताने के लिए उतावले हो गए थे । और उन्होंने शामवाली गाड़ी ही पकड़ ली। होनी को यही मंजूर था उसके आगे किसी का बस नहीं चलता। यह कहकर मनोहर भी शहर चला गया। सुखिया के आँखों के आँसू थम नहीं रहे थे। उसे अपने पिता से बहुत प्यार था। उसके पिता भी उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे। अपनी बेटी की खुशी के लिए उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी यही सब सोचकर सुखिया अपने-आप को उनके मौत का कारण समझने लगी। सुखिया की माँ को सारी बात की जानकारी थी। उनकी भी हालत काफी गंभीर थी परंतु उन्होंने अपने को संभाला क्योंकि अब दोनों बच्चों की जिम्मेवारी उनके कंधे पर आ गई थी।
देखते-देखते विवाह का दिन भी करीब आ गया परंतु मनोहर की तरफ से कोई खबर नहीं आई और मनोहर ने आना-जाना भी कम कर दिया था। सुखिया अपने पिता के मौत की जिम्मेवार अपने-आप को मान रही थी। उसकी माँ ने उसे बहुत समझाया कि बेटी उसके पिता की मौत में उसकी कोई गलती नहीं है। यह तो होनी को मंजूर था। जब विवाह के दो दिन शेष रहे और मनोहर की कोई खबर नहीं आई तो सुखिया की माँ ने शहर जाने का निश्चय किया। सुबह जब वह तैयार हो रही थी तभी घर के बाहर एक कार आकर रूकी उसमें से मनोहर और मास्टर दीनानाथ उतरे वह अंदर आए। उन्होंने सुखिया की माँ से कहा कि अब सुखिया आपकी ही बेटी नहीं है वह हमारे परिवार की एक अंग बन चुकी है उसके पिताजी ने जो दिन तय किया है विवाह उसी दिन होगा। मैंने सारी व्यवस्था कर दी है। आपको इसके लिए चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। सुखिया की माँ की आँखों में आँसू भर आए तब दीनानाथजी ने कहा आप फिकर न करें। और उन्होंने अपने साथ आए दो-चार व्यक्तियों को कहा कि यहाँ विवाह की सारी जिम्मेवारी आपकी मैं परसांे बारात लेकर आऊँगा और विवाह सुखिया के पिताजी के तय किए गए दिन ही होगा। विवाह की तैयारी होने लगी आंगन, दरवाजे को सजाया गया विवाह मंडप बनाया गया। सुखिया को गाँव की महिलाओं ने सजाया-संवारा तभी उसका भाई दौड़ते हुए आया और कहा दीदी-दीदी तुम इतना सज क्यों रही हो? तब उसने कहा कि मेरे राजा भैया मेरा विवाह होने वाला है तब उसके भाई ने पूछा कि दीदी आप विवाह के बाद हमें छोड़कर तो नहीं जाओगी? पिताजी भी कहीं चले गए और तुमभी चली जाओगी तो मैं और माँ कैसे रह पाएंगे? उसके स्वर को सुनकर सुखिया का मन भर आया। और उसने अपनी माँ को बुलाकर कहा-माँ मैं अभी विवाह नहीं करना चाहती हूँ तो माँ ने समझाया यह तुम्हारे पिता की आखिरी इच्छा थी। तुम्हें विवाह तो करना ही होगा। इतना अच्छा घर फिर मिले न मिले। तुम राजु की फिक्र न करो मैं संभाल लूँगी। वह तो अभी बच्चा है। बहुत समझाने पर सुखिया विवाह के लिए राजी हुई। वह दिन भी आ गया जब सुखिया के दरवाजे पर बारात आई। उस दिन राजु काफी खुश था चारो तरफ चहल-पहल थी। राजु को बहुत अच्छा लग रहा था। उसे क्या मालूम था कि सुबह होते ही उसकी प्यारी दीदी की विदाई हो जाएगी। रात्रि में विवाह संपन्न हुआ। सुबह जब विदाई का वक्त आया तो सुखीया की माँ सुखिया को गाड़ी पर चढ़ाने जाने लगी राजु भी साथ में था। जब सुखिया को गाड़ी में चढ़ाया गया तो सुखिया बच्चों की तरह रोने लगी। उसकी माँ के भी आँसू थम नहीं रहे थे। परंतु बेटी तो पराई होती ही है। वह भी तो एक दिन अपने मायके को छोड़कर इस घर में आई थी। उसने कलेजे पर पत्थर रखकर अपने बेटी की बिदाई की। राजु को समझ नहीं आ रहा था। दुल्हा-दुल्हन की गाड़ी शहर की ओर चल पड़ी। राजु गाड़ी के पीछे-पीछे भागते हुए अपनी दीदी को पुकार रहा था। परंतु दीदी अपने नए जीवन की शुरूआत करने चल पड़ी थी। जब वह भागते-भागते थक गया तो वहीं खड़ा होकर रोने लगा। सुखिया भी अपने भाई को भागते हुए देख रही थी। परंतु उसे तो जाना ही था।
राजु वापस आया और अपनी माँ से पूछा दीदी कहाँ चली गई माँ? अब मैं किसके साथ खेलूँगा, पिताजी भी नहीं रहे और माँ की गोदी में लीपट कर रोने लगा माँ के आँखों से भी गंगा की धार बह रही थी। रात हो गई राजु ने कुछ भी नहीं खाया था। माँ के लाख समझाने के बावजूद उसने दीदी-दीदी की रट लगाई थी। दीदी को लाओ तब खाउँगा मुझे दीदी ही खाना खिलाती थी। राजु ने खाना नहीं खाया और रोते-रोते सो गया। जब उसकी सुबह नींद खुली तो बाहर उसे सुखिया की आवाज सुनाई दी वह दौड़ता हुआ दीदी-दीदी करता हुआ बाहर की ओर भागा उसने देखा मनोहर बाबू दीदी के साथ कल वाली गाड़ी से ही आए हुए हैं। और माँ को अपने साथ चलने की जिद कर रहे हैं। क्या मैं आपका बेटा नहीं हूँ मुझे तो मेरे भाग्य ने माँ का सुख नहीं दिया परंतु सुखिया से विवाह होने के बाद मुझे मेरी माँ और भाई भी मिल गया मेरा परिवार पूरा हो गया है। अब मैं आपलोगों को अकेले नहीं छोड़ सकता। बहुत जिद करने के बाद राजु और उसकी माँ अपने बेटी-दामाद के साथ शहर रहने चले गए। अब फिर से उनके घर में खुशहाली लौट आई थी।

समाप्त

प्रिय मित्रों कहानी आपको कैसी लगी कृपया अपनी प्रतिक्रिया हमारे वाट्सऐप नं. 9473100666 पर अवश्य भेजें ताकि आपके मन मुताबिक आगे भी मै कहानी पोस्ट कर सकूं । पूरी कहानी पढ़ने के लिए धन्यवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may have missed