सांप्रदायिक एवं जातिगत ध्रुवीकरण के रास्ते पर चल पड़ा बिहार असेंबली चुनाव
प्रियव्रत झा की रिपोर्ट
बिहार में असेंबली चुनाव की घंटी बजते ही तमाम सियासी पार्टियां और संभावित प्रत्याशी चुनावी मैदान में कूद पड़े हैं। बिहार की गद्दी पर अगले 5 सालों तक कौन राज करेगा इसे लेकर सभी दल चुनावी बाजी जीतने के लिए
अपनी संपूर्ण शक्ति झोंक देना चाहते हैं। बिहार का चतुर्मुखी विकास गरीबी पर लगाम लगाने बेरोजगारी उन्मूलन नए-नए रोजगार का सृजन व बिहार को बुलंदियों पर पहुंचाने की बात लगभग सभी पार्टियों की घोषणा पत्र मे दिखाई देता है। बावजूद हर चुनाव में गरीबी बेरोजगारी भुखमरी पलायन किसानों की समस्या ज्वलंत मुद्दा के रूप में जनता के सामने परोसे जाने का काम किया गया है। विशुद्ध स्थानीय मुद्दे पर लड़ा जाने वाला बिहार विधानसभा चुनाव इस मर्तबा भी रोचक मोड़ पर पहुंच गया है। फिर एक बार इस चुनाव पर भी जाती पाती की काली छाया नजर आने लगी है। जातिगत समीकरण एवं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बुनियाद पर मौजूदा असेंबली चुनाव को भटकाने की कोशिश की जा रही है। जनता को विकास का झांसा दिखाकर जातिगत गोलबंदी ग्रामीण क्षेत्रों में सहज ही देखी जा सकती है। जाति के नाम पर आज भी हमारा समाज राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर बिना नफा नुकसान का आकलन किए अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं। धार्मिक बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक का हवाला देकर पर्दे के पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की खिचड़ी पक रही है। ऐसे में निवर्तमान सरकार की उपलब्धियों का विश्लेषण भी टेढ़ी खीर है जहां का चुनाव अंजाम पर पहुंचने से पहले जाति और संप्रदाय के बंधन में बंध जाता है। विपक्षी पार्टियों की भी विकास को लेकर स्पष्ट विजन नहीं रहने के कारण उनका मुद्दा सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही जान पड़ता है। कुछ दिन के बाद चुनाव परिणाम भी सामने आ जाएंगे लेकिन यहां की जनता को विकास का नतीजा कब देखने को मिलेगा। इन सब बातों का खुलासा जन अदालत में शीघ्र ही होने वाला है।